एक दुर्ग-नन्दिनी का पुण्य स्मरण

Ek Durg-Nandni ka Punya Smaran

                                            

                                                          चित्तौड़गढ़ शहर की पूर्व दिशा में विश्व विख्यात ऐतिहासिक दुर्ग स्थित है, जहां पर माँ कालिका मन्दिर की घंटियां कई शदियों से अहर्निश बिन रूण्ड-मुण्ड वाले समरांगण में सुशोभित असंख्य रणबांकुरों की रह-रहकर गौरव गाथाएं गाया करती है। वहीं भारतीय कला का उत्कृश्ट उदाहरण विजय-स्तम्भ भी है। यह लाखों वीरों की आन-बान-शान युक्त प्रयाग सदृश्य त्रिवेणी ज्वार ही नहीं मानो समस्त क्शत्रीय कुल का समरांगण में अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित गर्वोन्न्त भाल है। किसी प्राकृतिक विपदा से जब विजय-स्तम्भ को आंशिक क्शति पहुंची।

जिसके निवारणार्थ पुरातत्व विभाग की ओर से गठित राजमिस्त्रियों की विद्व-मण्डली में, जल-कुण्ड कुमारिया के पास ही स्थित कुमावत कुलश्रेश्ठ स्व. कंवरी बाई के कंत स्व. रोडूबा खन्नारिया का नाम न जाने कहंा से उछलकर तात्कालिन वास्तुज्ञाता एवं शिल्प शास्त्रियों के बीच दुर्लभ हीरे की भांति चमक उठा।  मरम्मत-कार्य की गति ने अद्भूत प्रगति का पाठ पढ़ाया। शीघ्र ही कार्य सम्पन्न हुआ। पत्थरों के उस जोड़ की बेजोड़ शिल्प कला की सुखद चर्चाएं  आज भी  दसों  दिशाओं मंे  चंचल सुवासित  मलयानिल की भांति बहुचर्चित हैं। राजमिस्त्री के पद पर सेवारत रहते हुए शिल्पकला के वंशानुगत, ज्ञानानुभवों के साथ-साथ कृशि-कार्य से जीविकोपार्जन करने वाले गृहस्थी स्व. रोडूलालजी कुमावत की गृहस्थ वाटिका में  विभिन्न प्रकार के कुल छः पुश्प खिले। जिसमें प्रथम कलिका को चुन्नीबाई के नाम से पुकारा जाने लगा।

कंटकाकीर्ण मार्ग एवं पथरीले बाड़ों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक डालपक सीताफलों की जी-जान से रखवाली करती हुई बन्दरों को भगाती रही। भगाते-भगाते ही शाखामृग तो पूरे भाग नहीं पाए किन्तु आपका बचपन भाग गया। नैसर्गिंक तरूणाई ने अंगडाई ली। चिन्तन बदला चितवन बदली बढ़ गई मन की विरानी। तात्कालिन सामाजिक दूरदर्शियों एवं परिजनों ने मिलकर अब इस परिन्दें को दूर उड़ाने की ठान ली। शहर चित्तौड़गढ़ निवासी स्व.नन्दरामजी नाहर के सुपौत्र एवं स्व. चम्पालाल जी नाहर के पुत्र श्री छगनलाल जी के संग चुन्नीबाई के हाथ पीले होने सुनिश्चित हुए। पावन परिणयोत्सव में शहनाईयों की गंूज एवं श्री केसरीमल, प्यारीबाई, श्री घनश्याम, गटूबाई, एवं समस्त आत्मियजनों के वैवाहिक गीतों ने सुप्रसिद्ध शिल्पकार की ज्येश्ठ कन्या को अन्तर्निहित सतरंगी अरमानों के साथ जन्म-जन्म के जीवनसाथी के घर की स्वागतातुर चिर प्रतिक्शारत देहली तक पहुंचाकर सजल नैनों को पौंछते हुए एक बड़ा सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण किया।

कुछ ही दिनों बाद हथेलियों की गीली मेहन्दी से मौन स्वीकृति लेकर गज, हथौड़ा, छेनी, टांकी करणी, सावेल इत्यादि पारम्परिक औजारों को कंधे पर धर कर कोमलांगिनी की अश्रुधाराओं को पेट की भूख- प्यास के हाथों से तैरते हुए शीघ्रागमन का वादा करते हुए देश छोड़ मजदूरी करने पीव परदेश निकल गए। शक्ति-भक्ति की देवनगरी चित्तौड़गढ़ के सदर बाजार और जूना बाजार के बीच मात्र पांच-पांच,छः-छः फीट चैड़ी सर्पाकार गलियां, पुराना पोस्ट आॅफिस, खाकलदेवजी, चारभुजानाथ मन्दिर से कुछ ही दूरी पर स्थिति देवनारायण देवरे के ठीक सामने लगभग ढ़ाई फीट चैडे़ द्वार वाले मकान में ऐसे मुहूर्त में प्रविश्ठ हुए जहां स्व. चुन्नीबाई ने अपने समग्र जीवन के 80 बसंत देखे, मगर उनकी सांस, श्वांस की असाध्य बीमारी की हमसफर बनकर अन्तिम सांस से छली गई।

अल्पकालिक सौभाग्य ने करवट बदली स्व.चम्पालाल की जीवनसंगिनी बिनोता निवासी स्व.गंगाराम जी पालडि़या की सुपुत्री नाथीबाई नवदम्पत्ति (छगनलाल-चुन्नीबाई) को दुर्गम पथरीले पथ पर एवं अपने प्राणाधार को अचानक मझधार में ही छोड़ कर पवनवेग से भवसागर पार कर गई। तदुपरान्त एक कुदरती खामोश ईशारा हुआ। गुजरते हुए मौत के तूफां में खुशबू महकी एक रूहानी तब्दीली का दौर चला चित्तौड़गढ़ शहर से पूर्व-दक्शिणी दिशा की ओर 16 किमी दूर केलझर महादेव की समीपस्थ पावनधरा घटियावली निवासी स्व. हीराजी सुंवारिया की बेटी भूरी, जख्मी मुसाफिर स्व. चम्पालालजी के टूटे पांव की ऐसी काबिल बैसाखी बनी कि कालान्तर में श्री घीसूलालजी और श्रीमती कैलाशीबाई (पुत्र-पुत्री) उनकी गोदी में आए और देवप्रदत्त अपने जीवन-पथ पर अग्रसर हुए ।

‘‘कार्य ही पूजा है’’ सिद्धान्त की अनूठी आराधिका स्व. चुन्नीबाई प्रारम्भ से ही बहुत परिश्रमी रही। सहेलियों संग कभी पुडि़यां बंटने जाना, कभी गोंद साफ करना तो कभी कृशि-कार्य हेतु खेतों पर जाना, ऐसी ही समयानुकूल विभिन्न प्रकार की दानकी-मजदूरी करती हुई एक अथक कर्मयोगिनी की भांति पसीने की क्शारीय स्याही से जिन्दगी का सफरनामा लिखते-लिखते ही बाल सफेद हो गए। धन-बल से ही सुनहरे भविश्य की सुखद परिकल्पनाएं साकार करने वाली, केवल अटूट मेहनत में ही अटूट विश्वास रखने वाली घाणी के बैल की भांति वृताकार गति में ही अनवरत गतिशील रहती हुई आत्म-संतुश्टी की अथक आराधिका चंद प्रतिकूल घटनाओं को क्रमशः झेलती हुई असामयिक ही ‘‘ मन के हारे हार ’’  की उक्ति को चरितार्थ कर बैठी।


सात लड़कियों के बाद गांव फतहनगर में उदयपुर रोड़ पर स्थित धूणीवाले बावजी की देवानुकम्पा से आठवीं व नवमी संतानें पुत्र रूप में जन्मी। दीर्घायु आठवी संतान को किशनलाल के नाम से जाना जाता है। जिनका विवाह चित्तौड़गढ़ निवासी स्व. बंशीलालजी गेंदर की चार लाड़ली बेटियों (पार्वती, प्रेम, अणछी, शान्ति) में तीसरी बेटी अणछीबाई के संग सम्पन्न हुआ। चुन्नीबाई की सात लड़कियों में से पाँच लड़कियां अल्पायु में ही मां के ममतामयी आंचल को छोड़ समय पूर्व ही अनन्त तारापथ की अनुगामिनियां हो गई।


दो लड़कियों में बड़ी लड़की मोहनीबाई स्व. होलाबा गेंदर के सुपौत्र एवं स्व. गिरधारीलालजी के सुपुत्र श्रीबालचन्द जी को एवं छोटी लड़की कंचनदेवी को सादड़ी वाले स्व. घीसालालजी चंगेरिया के सुपौत्र एवं स्व. रतनलालजी के सुपुत्र श्री अमृतलालजी को ब्याई। मानव शरीर अनन्त व्याधियों का अनन्त भण्डार है। यहां कब किसके कौनसी बीमारी हो जाए कोई नहीं कह सकता। हम सभी विधाता के कोटि-कोटि कर-कमलों की मनगढ़ंत क्शण भंगूर कठपुतलियां हैं।


नीलाम्बर के उस पार छिपकर बैठा वो अचूक बाजीगर विगत लाखों वर्शो से जिसको जैसे नचाना चाहता है उसे उसकी लाख इन्कारियों के बावजूद भी उसी तरह नाचना पड़ता है जिस तरहां ईश्वर चाहता है। वह ऐसा हठीला हाकिम भी है जो अक्सर किसी की सिफारिशें नहीं सुनता।

स्व. चुन्नीबाई-कन्हैया, बंटी, खुशबू उर्फ सीता पौत्र-पौत्री, ओमप्रकाश, चन्द्रप्रकाश, दिलीप, अनिता, यशोदा, नीलम,चन्द्रशेखर, चेतन, दोहिते-दोहिती, रूद्राक्शी, प्रियांशी, दिव्यांशी, परी, वंशराज पड़दोहिता-पड़दोहिती का हर-भरा खुशबूदार महकता हुआ गुलशन छोड़कर अचानक चल बसी। दिवंगत आत्मा को स्वर्ग में स्थान मिले एवं शोक सन्तप्त परिवार को यह वज्राघात सहन करने की शक्ति मिले। इन्हीं प्रार्थनाओं के साथ चारभुजानाथ के चरण-कमलों में बारम्बार प्रणाम।

आज तक हाथ की रेखाओं में समय पूर्व किसी को कुछ नहीं दिखा है।
यूं देखते तो सभी है, कि देखे लिखने वाले ने क्या-क्या लिखा है।
'वाणी' यह मुमकिन नहीं, क्या हू-ब-हू पढ़ लेगा तू उसकी तहरीर को।
अरे नादान! तू तो क्या तेरे तमाम कुनबांे में इतनी कुब्बत कहां है।




रचनाकार -
कवि अमृत ‘वाणी’
(अमृतलाल चंगेरिया कुमावत) 
राधे श्याम नाहर (कुमावत)



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