पत्थर के पुजारी ( Pathar Ke Pujari )

Let. Sh. Chhagan Lal Ji Nahar
( Kumawat)  Chittorgarh
    अनन्त शौर्यवान, अक्षुण्ण ऊर्जावान समर शिरोमणि सांगा की तलवार की टंकार और भक्तिमयी मीरां के घुंघरुओं के समेकित स्वरों से सतत अनुगंूजित अजर-अमर एवं अक्षय यौवना वीर प्रसूता चित्तौड़ नगरी के निवासी कुमावत क्षत्रिय समाज के समस्त सुवासित सतरंगी पुष्पों की बहुरंगी वाटिका में एक फूल को स्व. चम्पालाल नाहर के नाम से पुकारा जाता था। उनका विवाह बिनोता निवासी स्व. श्री गंगाराम जी पालरिया की सुपुत्री नाथीबाई के साथ सम्पन्न हुआ। ‘एकः चन्द्र तमो हन्ति’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए नाथीबाई अपनी सम्पूर्ण ममता इकलौते पुत्र स्व. श्री छगनलाल के नैसर्गिक बचपन पर न्यौछावर कर भवसागर पार कर गई।
            लौकिक रंगमंच पर नाचने को विवश हम सांसारिक कठपुतलियां विधाता की अंगुलियों से जीवनपर्यन्त बंधे अपने अदृश्य धागों को कहां देख पाती हंै। जीवन सरगम के फिर सुर बदले।  समीपस्थ घटियावली निवासी स्व. हीराजी सुंवारिया की बेटी स्व. भूरी ने स्व. चम्पालाल जी की जीवन यात्रा को उसी दिशा में एक नई गति प्रदान कर स्व. चम्पालाल जी की द्वितीय जीवनसंगिनी बनी। अब इस नाहर कुल में कुल - श्री घीसूलाल जी, श्रीमती कैलाशीबाई सहित स्व. छगनलाल जी तीन भाई बहिन हो गए।
            वक्त का कारवां आगे बढ़ता है और समय का सारथी मुखमण्डल पर शोभायमान नवांकुरित की भांति मूंछों की श्यामल रेखाओं को दुर्ग की प्राचीरों से आती हुई शहनाइयों की मनभावन धुन सुनाकर पीपली चैक स्थित स्व. रोडूलाल जी कुमावत की गृहस्थ फुलवारी की प्रथम कलिका स्व. चुन्नीबाई के संग पाणिग्रहण संस्कार हेतु एक आत्मीय आमंत्रण दिया, जिसके अन्तिम चरण में श्री केसरीमल, श्रीमती प्यारीबाई, श्री घनश्याम, श्रीमती घटू, श्रीमती रामकन्या एवं समस्त परिजनों ने विदाई गीत के साथ अपने सजल नयनों को पौंछते हुए इस वृहद सामाजिक उत्तरदायित्व को पूर्ण किया।
            शहर में सर्वचर्चित तत्कालीन शिक्षक चन्दनपुरा निवासी स्व. गणेशलाल जी ब्राह्मण के यहां प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण कर सम्वत् 2005 से ही अपने पारम्परिक शिल्प कार्य को जीविकोपार्जन का मुख्य आधार बनाते हुए जीवन संगिनी की हथेलियों की गीली महेन्दी से मौन स्वीकृति ले गज, हथौड़ा, छैनी, टांकी, करणी, सूत-सावेल आदि औजारों का थैला कंधे पर धर शीघ्रागमन का वादा करते हुए आपने न जाने किस अबूझ मुहूर्त में प्रस्थान किया कि लगभग 40 वर्षों तलक परदेस में विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार के निर्माण-कार्यों में लगे रहे। नारायणगढ़ के पास स्थित गांव बूढ़ा जहां आपने 2 जुग यानी की 24 वर्षों तक अनवरत भवन-निर्माण कार्य किया।
            सम्वत् 2012-13 में स्व. श्री राधाकिशन जी बारीवाल के सान्निध्य में चित्तौड़गढ़ शहर से कपासन रोड़ पर स्थित झांतलामाता मन्दिर-निर्माण में और भीलवाड़ा जिले के अरहरे गांव के मन्दिर में भी आपको कार्य करने का सौभाग्य मिला।
            अहमदाबाद स्थित आनन्दजी कल्याणजी की मुख्य पेड़ी द्वारा संचालित निर्माण-कार्य स्थल राजसमंद जिले के आमेट एवं नीमच जिले के चीताखेड़ा और मल्हारगढ़ गांव में आपको स्व. रोडूलाल जी, स्व. बंशी जी और स्व. भेरूलाल जी मोरवाल, भीण्डर वाले का भरपूर सान्निध्य मिला। ससुर जी एवं मिस्त्री जी स्व. रोडूलाल जी के साथ आपने दुर्ग पर भी कार्य किया। आप विशेषतः मन्दिरों के गोल गुम्बज बनाने के निष्णात शिल्पकार थे।

            सीखने-सिखाने की इस शाश्वत पावन प्रक्रिया में श्री जगनाथ हुंवारिया (घटियावली), श्री जगदीश जी, श्री नोला जी गायरी (दुर्ग), नानालाल जी (गोपालनगर) आदि अनेक आपके प्रिय शिष्य रहे। चित्तौड़गढ़ शहर के गांधीनगर में आपने लगभग 20 से अधिक आवासीय भवनों का निर्माण-कार्य एवं देखरेख करते हुए उन्हें पूर्ण किया।
            शहर फतहनगर के उदयपुर रोड़ पर स्थित लोकप्रिय देवता धूणीवाले बावजी की विशेष देवानुकम्पा से सात लड़कियों के बाद पुत्र रूप में जन्मी आठवीं सन्तान को श्री किशनलाल के नाम से पुकारा जाता, जिनका विवाह स्व. श्री बंशीलाल जी गेंदर की तीसरी पुत्री श्रीमती अणछीबाई के साथ सम्पन्न हुआ। काना, बन्टी और शीतल आपके यशस्वी पुत्र-पुत्री हैं। बड़ी बहिन मोहनीबाई, स्व. श्री गिरधारीलाल जी के ज्येष्ठ पुत्र श्री बालचन्द जी गेंदर को ब्याही, साथ ही छोटी बहिन कंचनदेवी को स्व. रतनलाल जी चंगेरिया (छोटीसादड़ी वाले) के द्वितीय पुत्र श्री अमृतलाल चंगेरिया को ब्याही। ओमप्रकाश, चन्द्रप्रकाश, दिलीप, अनिता (गेंदर) एवं यशोदा, नीलम, चन्द्रशेखर और चेतन (चंगेरिया) स्व. श्री छगनलाल जी के दोहिते-दोहिती हैं। रोली, प्रियांशी, श्रीया, दिव्यांशी, मनस्वी परी, वंशराज आपके पड़ दोहिते-दोहिती हंै। इनके मधुर स्वरों से सभी के अन्तर्मन सदैव आनन्दित रहते है। प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त हो देव दर्शनार्थ फूल-पत्ती लेने बाग-बागीचे जाना और चारभुजा मंदिर में प्रसाद एवं तुलसी पत्र चढ़ाना आपकी दिनचर्या के अभिन्न पहलू रहे। 
            50 वर्षों तक प्रतिदिन पसीने की बून्दों से मौन जलाभिषेक करने वाले पत्थर के इस पावन पुजारी से एक दिन अचानक ही पत्थर के सनम रूठ गए। आपकी ही छैनी-हथौड़ी से विषबाण की भाँति उछली एक टाप (पत्थर का एक छोटा सा टुकड़ा) आतंकवादी की तरह चुभ गई दायी आँख में। दूसरी आँख से पत्थर, मकान और मकानमालिक की जगह अब केवल आँखों के डाॅक्टर कम्पाउण्डर ही दिखाई देने लगें। लम्बे समय से नाना प्रकार के उपचार अभी चल ही रहे थे कि कैंसर के मर्ज ने इनके बचे-खुचे लघूत्तम सुख सदन का मुख्य द्वार खटखटा दिया। सालाजी श्री केसरीमल जी ने सहोदर से भी बढ़कर आपकी सेवा-सुश्रूषा करते हुए चार माह से अधिक समय तक अहमदाबाद रहते हुए सन 2001 मंे कैंसर रुपी दानव का पूर्णतः संहार कर लंका विजयोपरान्त राम-लक्ष्मण की भाँति प्रसन्न मुद्रा में चित्तौड़गढ लौटे।
            इसी वर्ष दिनांक 1 अप्रेल 2013 को आपकी जीवन संगिनी स्व.चुन्नी बाई इस असार संसार को छोड़कर अनंत तारापथ की अनुगामिनी हो गई। उस मानसिक आघात से आप अभी उबर ही नहीं पाए थे कि दिनांक 23.11.2013 को निजी आवास के बरामदे में उठते वक्त पुनः गिर जाने से कुल्हे की हड्डी टूट गई। इकलोते पुत्र श्री किशन लाल ने तब से ही अपने पूज्य पिताजी की अवर्णनीय सेवा करते हुए पितृ-भक्ति की एक मिसाल कायम की। सतत् प्रगतिशील 85 वर्षीय एक पहियें पर चलता हुआ वह जीवनरथ अब लड़खड़ाने लगा। तब से अनवरत जिजीविषा की उत्कंठा और जीवनज्योति स्वतः मंद से मंदतर होती रही। दिनांक 10.12.2013 की दोपहरी भी अभी दूर थी कि आपके प्राणपखेरू हम सब को छोड़कर महाप्रयाण कर गए।

Punya Smaran
Let. Sh. Chhagan Lal Ji Nahar (Kumawat)
Punya Smaran
Let. Sh. Chhagan Lal Ji Nahar (Kumawat)

Kavi Amrit Wani (Kumawat)

Sh. Radheshyam Ji Nahar ( Kumawat )
Sh. Kishan Lala Ji Nahar ( Kumawat )


एक दुर्ग-नन्दिनी का पुण्य स्मरण

Ek Durg-Nandni ka Punya Smaran

                                            

                                                          चित्तौड़गढ़ शहर की पूर्व दिशा में विश्व विख्यात ऐतिहासिक दुर्ग स्थित है, जहां पर माँ कालिका मन्दिर की घंटियां कई शदियों से अहर्निश बिन रूण्ड-मुण्ड वाले समरांगण में सुशोभित असंख्य रणबांकुरों की रह-रहकर गौरव गाथाएं गाया करती है। वहीं भारतीय कला का उत्कृश्ट उदाहरण विजय-स्तम्भ भी है। यह लाखों वीरों की आन-बान-शान युक्त प्रयाग सदृश्य त्रिवेणी ज्वार ही नहीं मानो समस्त क्शत्रीय कुल का समरांगण में अस्त्र-शस्त्र सुसज्जित गर्वोन्न्त भाल है। किसी प्राकृतिक विपदा से जब विजय-स्तम्भ को आंशिक क्शति पहुंची।

जिसके निवारणार्थ पुरातत्व विभाग की ओर से गठित राजमिस्त्रियों की विद्व-मण्डली में, जल-कुण्ड कुमारिया के पास ही स्थित कुमावत कुलश्रेश्ठ स्व. कंवरी बाई के कंत स्व. रोडूबा खन्नारिया का नाम न जाने कहंा से उछलकर तात्कालिन वास्तुज्ञाता एवं शिल्प शास्त्रियों के बीच दुर्लभ हीरे की भांति चमक उठा।  मरम्मत-कार्य की गति ने अद्भूत प्रगति का पाठ पढ़ाया। शीघ्र ही कार्य सम्पन्न हुआ। पत्थरों के उस जोड़ की बेजोड़ शिल्प कला की सुखद चर्चाएं  आज भी  दसों  दिशाओं मंे  चंचल सुवासित  मलयानिल की भांति बहुचर्चित हैं। राजमिस्त्री के पद पर सेवारत रहते हुए शिल्पकला के वंशानुगत, ज्ञानानुभवों के साथ-साथ कृशि-कार्य से जीविकोपार्जन करने वाले गृहस्थी स्व. रोडूलालजी कुमावत की गृहस्थ वाटिका में  विभिन्न प्रकार के कुल छः पुश्प खिले। जिसमें प्रथम कलिका को चुन्नीबाई के नाम से पुकारा जाने लगा।

कंटकाकीर्ण मार्ग एवं पथरीले बाड़ों में सूर्योदय से सूर्यास्त तक डालपक सीताफलों की जी-जान से रखवाली करती हुई बन्दरों को भगाती रही। भगाते-भगाते ही शाखामृग तो पूरे भाग नहीं पाए किन्तु आपका बचपन भाग गया। नैसर्गिंक तरूणाई ने अंगडाई ली। चिन्तन बदला चितवन बदली बढ़ गई मन की विरानी। तात्कालिन सामाजिक दूरदर्शियों एवं परिजनों ने मिलकर अब इस परिन्दें को दूर उड़ाने की ठान ली। शहर चित्तौड़गढ़ निवासी स्व.नन्दरामजी नाहर के सुपौत्र एवं स्व. चम्पालाल जी नाहर के पुत्र श्री छगनलाल जी के संग चुन्नीबाई के हाथ पीले होने सुनिश्चित हुए। पावन परिणयोत्सव में शहनाईयों की गंूज एवं श्री केसरीमल, प्यारीबाई, श्री घनश्याम, गटूबाई, एवं समस्त आत्मियजनों के वैवाहिक गीतों ने सुप्रसिद्ध शिल्पकार की ज्येश्ठ कन्या को अन्तर्निहित सतरंगी अरमानों के साथ जन्म-जन्म के जीवनसाथी के घर की स्वागतातुर चिर प्रतिक्शारत देहली तक पहुंचाकर सजल नैनों को पौंछते हुए एक बड़ा सामाजिक उत्तरदायित्व पूर्ण किया।

कुछ ही दिनों बाद हथेलियों की गीली मेहन्दी से मौन स्वीकृति लेकर गज, हथौड़ा, छेनी, टांकी करणी, सावेल इत्यादि पारम्परिक औजारों को कंधे पर धर कर कोमलांगिनी की अश्रुधाराओं को पेट की भूख- प्यास के हाथों से तैरते हुए शीघ्रागमन का वादा करते हुए देश छोड़ मजदूरी करने पीव परदेश निकल गए। शक्ति-भक्ति की देवनगरी चित्तौड़गढ़ के सदर बाजार और जूना बाजार के बीच मात्र पांच-पांच,छः-छः फीट चैड़ी सर्पाकार गलियां, पुराना पोस्ट आॅफिस, खाकलदेवजी, चारभुजानाथ मन्दिर से कुछ ही दूरी पर स्थिति देवनारायण देवरे के ठीक सामने लगभग ढ़ाई फीट चैडे़ द्वार वाले मकान में ऐसे मुहूर्त में प्रविश्ठ हुए जहां स्व. चुन्नीबाई ने अपने समग्र जीवन के 80 बसंत देखे, मगर उनकी सांस, श्वांस की असाध्य बीमारी की हमसफर बनकर अन्तिम सांस से छली गई।

अल्पकालिक सौभाग्य ने करवट बदली स्व.चम्पालाल की जीवनसंगिनी बिनोता निवासी स्व.गंगाराम जी पालडि़या की सुपुत्री नाथीबाई नवदम्पत्ति (छगनलाल-चुन्नीबाई) को दुर्गम पथरीले पथ पर एवं अपने प्राणाधार को अचानक मझधार में ही छोड़ कर पवनवेग से भवसागर पार कर गई। तदुपरान्त एक कुदरती खामोश ईशारा हुआ। गुजरते हुए मौत के तूफां में खुशबू महकी एक रूहानी तब्दीली का दौर चला चित्तौड़गढ़ शहर से पूर्व-दक्शिणी दिशा की ओर 16 किमी दूर केलझर महादेव की समीपस्थ पावनधरा घटियावली निवासी स्व. हीराजी सुंवारिया की बेटी भूरी, जख्मी मुसाफिर स्व. चम्पालालजी के टूटे पांव की ऐसी काबिल बैसाखी बनी कि कालान्तर में श्री घीसूलालजी और श्रीमती कैलाशीबाई (पुत्र-पुत्री) उनकी गोदी में आए और देवप्रदत्त अपने जीवन-पथ पर अग्रसर हुए ।

‘‘कार्य ही पूजा है’’ सिद्धान्त की अनूठी आराधिका स्व. चुन्नीबाई प्रारम्भ से ही बहुत परिश्रमी रही। सहेलियों संग कभी पुडि़यां बंटने जाना, कभी गोंद साफ करना तो कभी कृशि-कार्य हेतु खेतों पर जाना, ऐसी ही समयानुकूल विभिन्न प्रकार की दानकी-मजदूरी करती हुई एक अथक कर्मयोगिनी की भांति पसीने की क्शारीय स्याही से जिन्दगी का सफरनामा लिखते-लिखते ही बाल सफेद हो गए। धन-बल से ही सुनहरे भविश्य की सुखद परिकल्पनाएं साकार करने वाली, केवल अटूट मेहनत में ही अटूट विश्वास रखने वाली घाणी के बैल की भांति वृताकार गति में ही अनवरत गतिशील रहती हुई आत्म-संतुश्टी की अथक आराधिका चंद प्रतिकूल घटनाओं को क्रमशः झेलती हुई असामयिक ही ‘‘ मन के हारे हार ’’  की उक्ति को चरितार्थ कर बैठी।


सात लड़कियों के बाद गांव फतहनगर में उदयपुर रोड़ पर स्थित धूणीवाले बावजी की देवानुकम्पा से आठवीं व नवमी संतानें पुत्र रूप में जन्मी। दीर्घायु आठवी संतान को किशनलाल के नाम से जाना जाता है। जिनका विवाह चित्तौड़गढ़ निवासी स्व. बंशीलालजी गेंदर की चार लाड़ली बेटियों (पार्वती, प्रेम, अणछी, शान्ति) में तीसरी बेटी अणछीबाई के संग सम्पन्न हुआ। चुन्नीबाई की सात लड़कियों में से पाँच लड़कियां अल्पायु में ही मां के ममतामयी आंचल को छोड़ समय पूर्व ही अनन्त तारापथ की अनुगामिनियां हो गई।


दो लड़कियों में बड़ी लड़की मोहनीबाई स्व. होलाबा गेंदर के सुपौत्र एवं स्व. गिरधारीलालजी के सुपुत्र श्रीबालचन्द जी को एवं छोटी लड़की कंचनदेवी को सादड़ी वाले स्व. घीसालालजी चंगेरिया के सुपौत्र एवं स्व. रतनलालजी के सुपुत्र श्री अमृतलालजी को ब्याई। मानव शरीर अनन्त व्याधियों का अनन्त भण्डार है। यहां कब किसके कौनसी बीमारी हो जाए कोई नहीं कह सकता। हम सभी विधाता के कोटि-कोटि कर-कमलों की मनगढ़ंत क्शण भंगूर कठपुतलियां हैं।


नीलाम्बर के उस पार छिपकर बैठा वो अचूक बाजीगर विगत लाखों वर्शो से जिसको जैसे नचाना चाहता है उसे उसकी लाख इन्कारियों के बावजूद भी उसी तरह नाचना पड़ता है जिस तरहां ईश्वर चाहता है। वह ऐसा हठीला हाकिम भी है जो अक्सर किसी की सिफारिशें नहीं सुनता।

स्व. चुन्नीबाई-कन्हैया, बंटी, खुशबू उर्फ सीता पौत्र-पौत्री, ओमप्रकाश, चन्द्रप्रकाश, दिलीप, अनिता, यशोदा, नीलम,चन्द्रशेखर, चेतन, दोहिते-दोहिती, रूद्राक्शी, प्रियांशी, दिव्यांशी, परी, वंशराज पड़दोहिता-पड़दोहिती का हर-भरा खुशबूदार महकता हुआ गुलशन छोड़कर अचानक चल बसी। दिवंगत आत्मा को स्वर्ग में स्थान मिले एवं शोक सन्तप्त परिवार को यह वज्राघात सहन करने की शक्ति मिले। इन्हीं प्रार्थनाओं के साथ चारभुजानाथ के चरण-कमलों में बारम्बार प्रणाम।

आज तक हाथ की रेखाओं में समय पूर्व किसी को कुछ नहीं दिखा है।
यूं देखते तो सभी है, कि देखे लिखने वाले ने क्या-क्या लिखा है।
'वाणी' यह मुमकिन नहीं, क्या हू-ब-हू पढ़ लेगा तू उसकी तहरीर को।
अरे नादान! तू तो क्या तेरे तमाम कुनबांे में इतनी कुब्बत कहां है।




रचनाकार -
कवि अमृत ‘वाणी’
(अमृतलाल चंगेरिया कुमावत) 
राधे श्याम नाहर (कुमावत)



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Shree Murli Manohar kabra : Ahinandan Patra

    गाँव घोसुण्डा के महाजन कुल श्रेष्ठ स्व. श्री जानकीलाल काबरा एवं श्रीमती पार्वती देवी की गृहस्थ वाटिका में दिनांक 01 जनवरी 1960 को मुरली मनोहर नामक एक ऐसा बहुरंगी पुष्प खिला जिसने ना केवल अपने कुल में वरन् शैक्षिक एवं व्यावसायिक जगत में भी अपनी अमिट पहचान बनाई। ग्रामीण परिवेश में बचपन की मधुर स्मृतियों के साथ-साथ माध्यमिक शिक्षा पूर्ण कर उच्च अध्ययन हेतु आप शक्ति-भक्ति की पावन नगरी चित्तौड़गढ़ पधारे, जहाँ आपने सन् 1979 में वाणिज्य संकाय में बी.कॉम की उपाधि प्राप्त करते ही गाँधी शिक्षक महाविद्यालय गुलाबपुरा से 1980 में बी.एड. प्रशिक्षण प्राप्त किया।
जनवरी 1979 में पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ। साढ़े तीन अक्षरों के गाँव बम्बोरी ने श्रीमती अनोख कुंवर के संग परिणय बंधन में बांध कर ढाई अक्षरों के प्रेम का ऐसा पाठ पढ़ाया कि आपके सामाजिक व्यक्तित्त्व में प्रमिला, सुरेन्द्र, अखिलेश जैसे तीन चाँद ने ही चार चाँद लगा दिए।
दिनांक 22.12.1980 का अनन्त आभायुक्त स्वर्णिम दिनकर रा.उ.मा.वि. भादसोड़ा (जिला चित्तौड़गढ़) हेतु द्वितीय श्रेणी वेतन श्रृंखला में नियुक्ति का राज्यादेश लेकर आया। शिक्षा की पावनतम् प्रक्रिया, पढ़ने और पढ़ाने को परस्पर पूर्णतः पूरक मानते हुए आपने अध्ययन के क्रम को गहन विषम परिस्थितियों में भी भंग नहीं होने दिया और स्वयंपाठी के रूप में एकल झुझारू यौद्धा की भाँति अध्ययनशील रहते हुए सन् 1982 में एम.कॉम. की उच्च उपाधि प्राप्त की।
द्वितीय श्रेणी में पंचवर्षीय सेवाकाल की अल्पावधि में ही दिनांक 22.03.85 को आर.पी.एस.सी. से चयनित होकर उसी विद्यालय में आप प्राध्यापक वाणिज्य के पद रहते हुए एक जुग से भी अधिक अर्थात 12( वर्षों तक अपनी अखण्ड सेवाएं दी। ‘रमता जोगी बहता पानी’ की उक्ति को चरितार्थ करते हुए दिनांक 02.07.1997 को दो छतरियों वाली खान के पास स्थित स्थानीय विद्यालय में पधारे यहाँ 15 वर्षो की चिरस्मरणीय सेवाओं सहित 31 वर्षों का सफल सेवाकाल पूर्ण करते हुए समग्र तात्कालीन परिस्थितियों पर न्यायिक दृष्टिपात करते हुए स्व मानस मंथनोपरान्त स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के साहसिक चिंतन को आत्मसात् कर आज साकार रूप दिया।
परम श्रद्धेय काबराजी के बहुमुखी व्यक्तित्त्व में अर्थ के अर्थ और अनर्थ को उनके आकर्षक आवरण से लगाकर अंतिम परत तक बारीकी से पहचानने की दैव प्रदत्त विलक्षण प्रतिभा विद्यमान है, जिसके सहयोग से सहज ही आपने न केवल शैक्षिक जगत बल्कि व्यवसायी समाज में भी कई अनुकरणीय कीर्तिमान स्थापित किए।
श्री मुरली मनोहर काबराजी की मधुर मुरली से लक्ष्मी का आह्वान अर्थात् धनार्जन के विविध सौपानों का सांगोपांग अध्ययन अध्यापन के सुखद सरगमों के बीच यदा-कदा अनपेक्षित गाण्डीव की टंकार एवं पांचजन्य के जयघोष सदृश्य स्वर भी सुनाई पड़ते थे जो आपके निर्भीक न्यायपूर्ण एवं अदम्य स्वाभिमान की स्पष्टाभिव्यक्तियों के नैसर्गिक प्रतीक थे।
राजकीय सेवाओं में 31 वर्ष की सेवा अवधि पूर्ण कर यह अथक आदित्य आज अस्ताचल को ढ़लता है। जीवन के इतिहास का एक विहंगम अध्याय आज अपनी सम्पूर्णता के साथ ही नवीन अध्याय का शंखनाद करता है। यह विद्यालय परिवार मानव सेवा, समाज सेवा और ईश्वरीय चिन्तन में अधिकाधिक समय व्यतीत करते हुए आपके शतायु होने की कोटि-कोटि शुभकामनाएं प्रकट करता है।

दिनांक: 31.07.2012

-ः श्रद्धावनत:-
विद्यालय परिवार, रा.उ.मा.वि., सैंती, जिला-चित्तौड़गढ़ (
राज.)

Shri Man Gajraj Singh Rathore : Abhinandan Patra

परम् आदरणीय
श्रीमान् गजराज सिंह राठौड़, ‘‘कार्यालय सहायक’’
मेवाड़ मालवांचल के सीमावर्ती गाँव अम्बावली जिला प्रतापगढ़ निवासी
श्रीगुलाबसिंह राठौड़ एवं श्रीमती आनन्द कुँवर की गृहस्थ वाटिका में आनंद कुँवर के आनंद को कई गुणा बढाते हुए दिनांक 16.12.1952 को गुलाब का हूबहु हमशक्ल गजराज सिंह नामक एक ऐसा गुलाब खिला जिसनेन केवल खानदानी टहनी को वरन् पूरे गुलशन को ही अपनी खुशबू से सराबोर कर दिया।
    उदयाचल के इस चंचल बाल रवि ने अपनी नैसर्गिंग गति से भावी चौमुखी प्रगति के प्रारम्भिक पाठ पढते हुए प्रतापगढ़ से गोदावत जैन गुरूकुल छोटीसादड़ी की ओर  दम बढाए, जहाँ से आपने उच्च माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण की। इस सफल स्वयंपाठी मेधावी अनंत ज्ञान पिपासु ने राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से हिन्दी, संस्कृत, समाजशास्त्र से स्नातक एवं समाजशास्त्र में एम.ए.की उपाधियाँ प्राप्त करके राजस्व विभाग के अन्तर्गत उदयपुर जिले की सराड़ा तहसील में दिनांक 29.08.1973 को क.लि. के पद पर राजकीय कार्यभार ग्रहण किया ही था कि इस खुश नसीब गुलाब की सतरंगी पंखुडियां एक-एक कर खुद ब खुद खिलने लगी। 6 माह के प्रारम्भिक अनुभवोपरान्त
राजस्थान आबकारी आयुक्त कार्यालय उदयपुर में कार्यकुशलताओं की कई मधुर स्मृतियों के साथ क.लि. के पद पर खमनोर(हल्दीघाटी) रहते हुए सन् 1980 में व.लि. के पद पर पदोन्नत होकर उदयपुर जिले के रा.मा.वि. भबराना पधारे।
सन् 1981 से रा.उ.मा.वि. धमोतर में लगभग डेढ़ युग तक अपनी सराहनीय सेवाएँ पूर्ण कर सन् 1998 में बारावरदा गए। जहां अनवरत 6 वर्ष रहते हुए 2004 में पदोन्नत होकर का.सहा. कार्यालय जिला शिक्षा अधिकारी (प्रा.शि.) चित्तौड़गढ़ आए। 6
वर्ष बाद सन् 2010 में रमताजोगी बहता पानी की उक्ति को पूर्णतः आत्मसात करते हुए घाट-घाट का पानी पीते हुए इस पानीदार कलमकार का राजकीय यात्रा के अन्तिम मुकाम पर रा.उ.मा.वि.सेंती, चित्तौड़गढ़ में आगमन हुआ ।
भाषा की प्रांजलता, मोती सदृश हस्तलेखन, चित्ताकर्षक सहृयता, हंसवाहिनी के अनंत दुलारे, कुशल शब्दशिल्पी, मौन चित्रकार, विधिज्ञाता, विनोदप्रिय, अल्पभाषी, क्षत्रिय कुलानुकुल स्वाभिमान के अनूठे पूजारी, स्वभाव में न्रमता, मूंछ में वक्रता मुखारविन्द पर सदाबहार स्नेहिल हंसी, गीतों के बेताज बादशाह, हीरकहार सदृश स्मितमयी अखण्ड रसधारी रसना
स्वर्ण रश्मियों से अलंकृत रक्तिम नयन जहां मुसाफिर को आज भी सकुन मिलता यह अर्न्तमन कितना अदभुत मधुवन है।
राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर की कई पत्रपत्रिकाआंे में आपकी रचनाएँ अनेकानेक बार प्रकाशित होती रही। कवि-सम्मेलन के मंचों के चिरस्मरणीय लघु हस्ताक्षर को कभी कंगुरे की चाहत नहीं हुई। नींव के पत्थर बन कर भी अनंत अनुभुतियों के सुख-सागर में आजीवन आकण्ठ आप्लावित रहे। बेडमिन्टन और बॉस्केटबाल 25 वर्षों तलक तारीफे काबिल हमसफर बनकर शिविरा मंत्रालयीक कर्मचारी खेलकूद प्रतियोगिता में न केवल उदयपुर मण्डल का प्रतिनिधित्व कर कई बार राज्य स्तरीय खिताब जीते बल्कि अखिल भारतीय सिविल खेलकूद प्रतियोगिताओं में भी 3 बार चयनित हुए। विभागीय मंत्रालयिक कर्मचारी राज्य स्तरीय सम्मान पाया। साथ ही 15 वर्षों तक लगातार मेवाड़ क्षत्रीय महासभा छोटीसादड़ी के ‘अध्यक्ष’ पद पर रहते हुए समाज-सेवा की। ‘‘कर्मण्यवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन’’ की उक्ति को हृदयस्थ करते हुए सतत सक्रिय इस कर्मयोगी को जौहर स्मृति संस्थान, चित्तौड़गढ़ द्वारा महारानी पद्मनी अलंकरण, उपखण्ड प्रशासन प्रतापगढ़ राज्य एवं राष्ट्रीय स्तरीय विभिन्न सम्मान ने, आपके बहुमुंखी व्यक्तित्व को समय-समय पर नवाजा और तराशा है।
तेजपाल, चक्रपाल और इन्दिरा तीन सितारों ने ही आपके सामाजिक व्यक्तित्व में चार चाँद लगा दिए। हर्षिता, कीर्ति, नटवरसिंह, धर्मेन्द्रसिंह और वन्दना इत्यादि के समेकित कलरव की सुमधुर अनुगंूज, नवपल्लव से अदृश्य कर-कमल, चिर मंगलाकांक्षियों की थकी-थकी सी नजरें, आज अश्रुमय आनन से अस्ताचल को ढ़लते अथक दिनकर के सफल  साक्षात्कार हेतु चिरप्रतिक्षारत है।
आज संध्यासुन्दरी राजकीय यात्रावृतांत के अन्तिम पृष्ठ पर सत्यम् शिवम् सुन्दरम् लिख इति श्री के हस्ताक्षर करती हुई अगले अरूणोदय की स्वर्णिम सुषमा में जीवन का नवीन विहंगम् अध्याय के शुभारम्भ हेतु अत्यातुर लगती है।
आप स्वाध्यायी, चित्रकारी, साहित्य सृजन, आत्मोद्धार हेतु सतत् प्रयत्नशील रहते हुए समाज-सेवा, राष्ट्र-सेवा में सदैव, तत्पर रहेंगे इन्हीं कोटि-कोटि शुभकामनाओं के साथ पुनश्च श्रद्धावनत्।



विद्यालय परिवार
रा.उ.मा.वि. सेंती, चित्तौड़गढ़ (राज.)
दिनांक: 31.12.2012
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